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गीत / रामधारी सिंह "दिनकर"

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'''गीत'''

उर की यमुना भर उमड़ चली,
:::तू जल भरने को आ न सकी;
मैं ने जो घाट रचा सरले!
:::उस पर मंजीर बजा न सकी।

::दिशि-दिशि उँडेल विगलित कंचन,
::रँगती आई सन्ध्या का तन,
::कटि पर घट, कर में नील वसन;
कर नमित नयन चुपचाप चली,
:::ममता मुझ पर दिखला न सकी;
चरणों का धो कर राग नील-
:::सलिला को अरुण बना न सकी।

::लहरें अपनापन खो न सकीं,
::पायल का शिंजन ढो न सकीं,
::युग चरण घेरकर रो न सकीं;
विवसन आभा जल में बिखेर
:::मुकुलों का बन्ध खिला न सकी;
जीवन की अयि रूपसी प्रथम!
:::तू पहिली सुरा पिला न सकी।


</poem>