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04:15, 9 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मासूम गाज़ियाबादी
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<poem>
जहाँ सब छोड़ देते हैं वहीं से ही उठानी है
हमारे पास ले दे कर गरीबों की कहानी है
सुनाने को सुना सकता हूँ नग्में शहंशाहों के
मगर उनकी टो सब गाते हैं जिनकी हुक्मरानी है
वो क्या समझेगा पत्थर तोड़ते हाथों की तकलीफें
नज़र में जिसकी इक मजदूर औरत की जवानी है
मशक्कत करके जो फिर आज खाली हाथ लौटी है
उसे ये रात भी फिर आज रो रो कर बितानी है
अमीरे-शहर नें भेजा तो है रंगीन पैराहन
गरीबे-शहर को बेटी की फिर इस्मत बचानी है
तुम्हें जुल्फें मुबारक हों, हमें वो खुरदुरे चेहरे
कि जिनकी झुर्रियों में अब भी उल्फत की निशानी है
वो जिन 'मासूम' आँखों नें लिबासे-अश्क पहने हैं
मुझे खाबों की इक महफ़िल उन आँखों में सजानी है
<poem>