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'''पद 241 से 250 तक'''
 
(245)
 
मेहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।
 
याके लिये सुनहु करूनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो।।
 
सीतल, मधुर, पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जनु खोयो।
 
बहु भाँतिन स्त्रम करत मोहबस,बृथहि मंदमति बारि बिलोयो।।
 
करम-कीच जिय जानि, सानिचित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।
 
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो।।
 
तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।
 
डासत ही बीति गयी निसा सब, कहहूँ न नाथ! नींद भरि सोयो।।
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