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|रचनाकार=चंद्र रेखा ढडवाल
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}}
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आदमी असल में
एक घोड़ा
सवार बिठाए बिठाए
न भी दौड़े
एक काठी तो
बिँधी ही रहती है
उसकी माँस-मज्जा से.</poem>
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आदमी असल में
एक घोड़ा
सवार बिठाए बिठाए
न भी दौड़े
एक काठी तो
बिँधी ही रहती है
उसकी माँस-मज्जा से.</poem>