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|रचनाकार=चंद्र रेखा ढडवाल
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इच्छा और असामर्थ्य की
जंग में पिसते देख
दया या घृणा से ज़्यादा
जुगुप्सा में भर उठती औरत
जवान हाथों से बूढ़ी काया सहेजते
वमन नकारती
पहाड़ भर मिट्टी
उँडेल देना चाहती है
कुचेष्टाओं पर
खुले अंगों पर
या कम से कम एक मुठ्ठी जलती राख
निगलने को आती आँखों में
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