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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
}}
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<poem>
'''प्रतीक्षा'''
::::अयि संगिनी सुनसान की!
::[१]
मन में मिलन की आस है,
दृग में दरस की प्यास है,
पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे
उसका पता मिलता नहीं,
झूठे बनी धरती बड़ी,
झूठे बृहत आकश है;
::मिलती नहीं जग में कहीं
::प्रतिमा हृदय के गान की।
::::अयि संगिनी सुनसान की!
::[२]
तुम जानती सब बात हो,
दिन हो कि आधी रात हो,
मैं जागता रहता कि कब
मंजीर की आहट मिले,
मेरे कमल-वन में उदय
किस काल पुण्य-प्रभात हो;
::किस लग्न में हो जाय कब
::जानें कृपा भगवान की।
::::अयि संगिनी सुनसान की!
::[३]
मुख में हँसी, मन म्लान है,
उजड़े घरों में गान है,
जग ने सिखा रक्खा, गरल
पीकर सुधा-वर्षण करो,
मन में पचा ले आह जो
सब से वही बलवान है।
::उर में पुरातन पीर, मुख
::पर द्युति नई मुसकान की।
::::अयि संगिनी सुनसान की!
</poem>
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|रचनाकार=दिनकर
}}
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<poem>
'''प्रतीक्षा'''
::::अयि संगिनी सुनसान की!
::[१]
मन में मिलन की आस है,
दृग में दरस की प्यास है,
पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे
उसका पता मिलता नहीं,
झूठे बनी धरती बड़ी,
झूठे बृहत आकश है;
::मिलती नहीं जग में कहीं
::प्रतिमा हृदय के गान की।
::::अयि संगिनी सुनसान की!
::[२]
तुम जानती सब बात हो,
दिन हो कि आधी रात हो,
मैं जागता रहता कि कब
मंजीर की आहट मिले,
मेरे कमल-वन में उदय
किस काल पुण्य-प्रभात हो;
::किस लग्न में हो जाय कब
::जानें कृपा भगवान की।
::::अयि संगिनी सुनसान की!
::[३]
मुख में हँसी, मन म्लान है,
उजड़े घरों में गान है,
जग ने सिखा रक्खा, गरल
पीकर सुधा-वर्षण करो,
मन में पचा ले आह जो
सब से वही बलवान है।
::उर में पुरातन पीर, मुख
::पर द्युति नई मुसकान की।
::::अयि संगिनी सुनसान की!
</poem>