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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 12

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<poem>
सुन्दर बदन , सरसीरूह सुहाए नैन,
मंजुल प्रसून माथें मुकुट जटनि के।
 
अंसनि सरासन, लसत सुचि सर कर,
 
तून कटि , मुनिपट लूटक पटनि के।।
 
नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै,
 
बिधि बिरचैं बरूथ बिद्युतछटनि के।।
 
गोरेको बरनु देखें सोनो न सलोनेा लागै,
 
साँवरे बिलोकें गर्ब घटत धटनि के।16।
 
 
 
बलकल-बसन, धनु-बान पानि, तून कटि,
 
रूपके निधान घन-दामिनी-बरन हैं।
 
तुलसी सुतीय संग, सहज सुहाए अंग,
 
नवल कँवलहू तें केामल चरत हैं।।
 
औरै सो बसंतु, और रति, औरै रतिपति,
 
मूरति बिलोकें तन-मनके हरन हैं।
 
तापस बेषै बनाइ पथिक पथें सुहाइ,
 
चले लोकलोचननि सुफल करन हैं।17।
 
 
बनिता बनी स्यामल गौर के बीच ,
 
बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै।
 
मनुजोगु न कोमल, क्यों चलिहै,
 
सकुचाति मही पदपंकज छ्वै।।
 
तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं,
पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै।
 
सब भाँति मनोहर मोहनरूप,
 
अनूप हैं भूपके बालक द्वै।18।
 
 
साँवरे-गोरे सलेाने सुभायँ, मनोहरताँ जिति मैनु लियो है।
 
बान-कमान, निषंग कसें, सिर सोहैं जटा, मुनिबेषु कियेा है।।
 
संग लिएँ बिधुबैनी बधू, रतिको जेहि रंचक रूप दियो है।
 
पायन तौ पनहीं न , पयादेहिं क्यों चलिहैं, सकुचात हियो है।19।
 
 
रानी मैं जानी अयानी महा, पबि-पाहनहू तें कठोर हियो है।
 
राजहुँ काजु अकाजु न जान्यो, कह्यो तियको जेहिं कान कियो है।।
 
ऐसी मनेाहर मूरति ए, बिछुरें कैसे प्रीतम लोगु जियो है।
 
आँखिनमें सखि! राखिबे जोगु , इन्हैं किमि कै बनबासु दियो है।20।
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