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|संग्रह=वंशी और मादल / ठाकुरप्रसाद सिंह
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पाँच जोड़ बाँसुरी
 
बासन्ती रात के विह्वल पल आख़िरी
 
पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
 
पाँच जोड़ बाँसुरी
 
वंशी स्वर उमड़-घुमड़ रो रहा
 
मन उठ चलने को हो रहा
 
धीरज की गाँठ खुली लो लेकिन
 
आधे अँचरा पर पिय सो रहा
 
मन मेरा तोड़ रहा पाँसुरी
 
पाँच जोड़ बाँसुरी
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