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{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=कल सुबह होने के पहले / शलभ श्रीराम सिंह
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
मांस-पेशियों की
उधेड़-बुन में गुम
एक पूरी शताब्दी
किसी बन्द हो रहे पिरामिड के नीचे
अपनी नियति से बँधी
निःशब्द-निष्कम्प खडई है !
एक बीती हुई ज़िन्दगी
शताब्दी की सम्पूर्णता से भी बड़ी है !
यहाँ तक कि :
पिरामिड के पत्थर को
उलट कर
बाहर आ जाने वाला इंसान भी
उससे छोटा है !
(1966)
</poem>
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|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=कल सुबह होने के पहले / शलभ श्रीराम सिंह
}}
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मांस-पेशियों की
उधेड़-बुन में गुम
एक पूरी शताब्दी
किसी बन्द हो रहे पिरामिड के नीचे
अपनी नियति से बँधी
निःशब्द-निष्कम्प खडई है !
एक बीती हुई ज़िन्दगी
शताब्दी की सम्पूर्णता से भी बड़ी है !
यहाँ तक कि :
पिरामिड के पत्थर को
उलट कर
बाहर आ जाने वाला इंसान भी
उससे छोटा है !
(1966)
</poem>