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विनयावली() / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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[[Category:लम्बी रचना]]
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|पीछे=विनयावली() पद 11 से 20 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 14
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|सारणी=विनयावली() पद 11 से 20 तक / तुलसीदास
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'''पद 11 से संख्या 19 तथा 20 तक''' (12) सदा - शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं, शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं। काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं।। कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं। सिंद्ध-सनकादि-योगीन्द्र-वृंदारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं।। ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं। नौमि करूणाकरं, गरल-गंगाधरं, निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं।। लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं, शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं। कालकालं, कलातीतमजरं, हरं, कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं।। तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं। प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं, दास तुलसी शरण सानुकूलं।। (13) स्ेावहु सिव-चरन-सरोज-रेनु। कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनु।। कर्पूर-गौर, करूना-उदार। संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार।। सुख-जन्मभूमि, महिमा अपार। निर्गुन, गुननायक, निराकार।। त्रयनयन, मयन-मर्दन महेस। अहँकार-निहार-उदित दिनेस।। बर बाल निसाकर मौलि भ्राज। त्रैलोक-सोकहर प्रमभराज।। जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल। तिन्ह की गति कासीपति कृपाल।। उपकारी कोऽपर हर-समान। सुर-असुर जरत कृत गरल पान।। बहु कल्प उपायन करि अनेक। बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक।। बिग्यान-भवन, गिरिसुता-रमन। कह तुलसिदास मम त्राससमन।। (15) दुसह दोषं-दुचा,दति, करू देवि दाया।विश्व- मूलाऽसि, जन- सानुकूलाऽसि, कर शूलधारिणि महामूलमाया।1।तडित गर्भांग सर्वंाग सुन्दर लसत, दिव्य पट भूषण विराजैं।बालमृग-मंजु खंजन- विलोचनि, चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजैं।2।रूप-सुख-शील-सीमाऽसि, भीमाऽसि,रामाऽसि, वामाऽसि वर बुद्धि बानी।छमुख-हेरंब-अंबासि, जगदंबिके, शंभु-जायासि जय जय भवानी।3।चंड-भुजदंड-खंडनि, बिहंडनि महिष मुंड -मद- भंग कर अंग तोरे।शुंभु -निःशुंभ-कुम्भीश रण-केशरिणि, क्रोध-वारीश अरि -वृन्द बोरे।4।निगम आगम-अगम गुर्वि! तव गुन-कथन, उर्विधर करत जेहि सहस जीहा।देहि मा, मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनश्याम तुलसी पपीहा।5। (16) छीन, जय जय जगजननि देवि सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि, भुक्ति-मुक्ति-दायिनी, भय-हरणि कालिका। मंगल-मुद-सिद्वि-सदनि, पर्वशर्वरीश-वदनि, ताप-तिमिर-तरूण-तरणि-किरणमालिका।। वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल-शेल -धनुषबाण, धरणि, दलनि दानव-दल, रण-करालिका। पूतना-पिंशाच-प्रेत-डाकिनि-शाकिनि-समेत, भूत-ग्रह-बेताल-खग-मृगालि-जालिका।। जय महेश-भामिनी, अनेक-रूप-नामिनी, समस्त-लोक-स्वामिनी, हिमशैल-बालिका। रघुपति-पद परम प्रेम, तुलसी यह अजल नेम, देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत-पालिका।। (17) जय जय भगीरथ नन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दनि,नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जहनु बालिका।बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,त्रिपथ गासि, पुन्रूरासि, पाप-छालिका।1।बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,भँवर बर, बिभंगतर तरंग-मालिका।पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका।2।थ्नज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका।तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुवंस-बीर, बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका।3।
(19)
श्री हरनि पाप, त्रिबिधि ताप सुमिरत सुरसरित।
बिलसित महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ -फरित।।
 
सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित।
बिमलतर तरंग लसत रघुबरके-से चरित।।
 
तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित?
घोर भव अपार सिंधु तुलसी किमि तरित।।
श्री ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पाताल-धरनि।
सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल-करनि।।
 
देखत दुख-दोष-दुरित-दाह -दादिद-दरनि।
सगर-सुवन साँसति-समनि, जलनिधि जल भरनि।।
 
महिमाकी अवधि करसि बहु, बिधि हरनि।
तुलसी करू बानि बिमल, बिमल-बारि बरनि।।
  </poem>
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