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'''रचनाकाल : २००३/२०११'''
गर है तो क्यों तेरी बातों में बनावट है
किसलिए यह मुझ से मुझसे तेरी झूठी लगावट है
ग़ैर की महफ़िल में उफ़! तेरे अंदाज़े-ख़ममुआ जाए <ref>मृत</ref> है उदू <ref>शत्रु</ref> सरापा कैसी सजावट है
सद-अफ़सोस <ref>सौ ग्लानियाँ</ref> क्यों नौ -जवाँ <ref>नयी यौवन</ref> हैं मेरे ख़ातिर <ref>दिल, हृदय</ref> में
तेरे दिल में जज़्बों की कैसी मिलावट है
सीमाब <ref>भारी</ref> है लहू में दौड़ता सच्चा इश्क़यूँ फ़िराक़ <ref>दूरी</ref> से धड़कनों में मेरी गिरावट है
फिर वही शाम है और है आँखों में नमी
नमी क्या कहाँ है यह तो लहू की तरावट है
पढ़ते हैं महफ़िल में किसी ग़ैर के शे’रअशआर<ref>शे'र का बहुवचन</ref>बताते हैं कि पुरज़े <ref>काग़ज़ के टुकड़े</ref> पे मेरी लिखावट है
एक जुनूँ को दबाके जुनून दबाकर सुकूँ पाया है तूनेबे-फ़िजूल इन सब <ref>व्यर्थ</ref> आज ऐसी बातों की दिखावट है
वाइज़ <ref>बुद्धिजीवी</ref> की मानी मान ली इसलिए यह हश्र हुआ
हरे हैं घाव शायद काई की जमावट है
ऐन वक़्त अपनी बात बातों से मुकर गयेतुम
क्यों शर्मिन्दगी से आँखों की झुकावट है
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