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|रचनाकार=जयकृष्ण राय तुषार
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सुलगते
सवाल कई
छोड़ गया मौसम |
मानसून
रिश्तों को
तोड़ गया मौसम |

धुआँ -धुँआ
चेहरे हैं
धान -पान खेतों के ,
नदियों में
ढूह खड़े
हंसते हैं रेतों के ,

पथरीली
मिट्टी को
गोड़ गया मौसम |

आंगन कुछ
उतरे थे
मेघ बिना पानी के ,
जो कुछ हैं
पेड़ हरे
राजा या रानी के ,

मिट्टी के
मटके हम
फोड़ गया मौसम |

मिमियाते
बकरे हम
घूरते कसाई ,
शाम -सुबह
नागिन सी
डंसती मंहगाई ,

चूडियाँ
कलाई की
तोड़ गया मौसम |
</poem>