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|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
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<poem>
कुहरा ही कुहरा !
अंधकार ही अंधकार !
घुटती हुई नदियाँ - सुलगती पहाड़ियाँ !
और मुझे निगल जाने को प्रस्तुत
एक आदमखोर रेगिस्तानी शाम !
इतने सारे लोगों के थूके एकान्त पर बैठ कर
मुँह में एक पूरी धुँधुआती चिता लिए
मेरे चेहरे पर अंधेरा फेंक कर
समूचे अस्तित्व को दबोच लेती है !
और जोर-जोर से दाँत पीसती है !
चौकन्नी है महज़ इस ख़्याल से कि
शायद न उड़ा सकी हों आँधियाँ
गए हुए कबीलों के सारे-सारे पदचिन्ह !
शायद हवा में कहीं जीवित हो
पीछे छुट गए लोगों की गुहारें !
शायद इधर से गुजर जाये
दूर नखलिस्तान में गूँजती बाँसुरी की आवाज़ !
इसीलिए
मेरे समूचे अस्तित्व को दबोच कर
सिर्फ दाँत पीसती है....पीसती रहती है !
यह आदमखोर रेगिस्तानी शाम !
(1964)
</poem>
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