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उदास तुम / धर्मवीर भारती

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तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चांदनी जगती हो !
मुँह पर ढँक लेती हो आँचलज्यों डूब रहे रवि पर बादल,या दिन-भर उड़कर थकी किरन,सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन !दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास !तुम कितनी सुन्दर लगती हो<br>जब तुम हो जाती हो उदास !<br>ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास<br>मदभरी चांदनी जगती हो !<br><br>
मुँह पर ढँक लेती हो आँचल<br>खारे आँसू से धुले गालज्यों डूब रहे रवि पर बादलरूखे हलके अधखुले बाल,<br>या दिन-भर उड़कर थकी किरनबालों में अजब सुनहरापन,<br>सो जाती हो पाँखें समेटझरती ज्यों रेशम की किरनें, आँचल में अलस उदासी बन संझा की बदरी से छन-छन !<br>दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास मिसरी के होठों पर सूखी किन अरमानों की विकल प्यास !<br>तुम कितनी सुन्दर लगती हो<br>जब तुम हो जाती हो उदास !<br><br>
खारे आँसू से धुले गाल<br>रूखे हलके अधखुले बाल,<br>बालों में अजब सुनहरापन,<br>झरती ज्यों रेशम की किरनें, संझा की बदरी से छन-छन !<br>मिसरी के होठों पर सूखी किन अरमानों की विकल प्यास !<br>तुम कितनी सुन्दर लगती हो<br>जब तुम हो जाती हो उदास !<br><br> भँवरों की पाँतें उतर-उतर<br>कानों में झुककर गुनगुनकर<br>हैं पूछ रहीं-‘क्या बात सखी ?<br>उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी ढँकी बरसात सखी ?<br>चम्पई वक्ष को छूकर क्यों उड़ जाती केसर की उसाँस ?’<br>तुम कितनी सुन्दर लगती हो<br>ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास<br>
मदभरी चाँदनी जगती हो !
</poem>
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