|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
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तुम मेरे कौन हो कनु
मैं तो आज तक नहीं जान पाई
तुम बार-बार मुझ से मेरे कौन हो कनु<br>मन ने मैं आग्रह से, विस्मय से, तन्मयता से पूछा है- ‘यह कनु तेरा है कौन? बूझ तो आज तक नहीं जान पायी<br><br>!’
बार-बार मुझ से मेरे मन मेरी सखियों ने <br>आग्रह व्यंग्य से, विस्मय कटाक्ष से, तन्मयता कुटिल संकेत से पूछा है- <br>‘यह कनु ‘कनु तेरा है कौनहै री, बोलती क्यों नहीं? बूझ तो!’<br><br>
बार-बार मुझ से मेरी सखियों मेरे गुरुजनों ने <br>व्यंग्य कठोरता से, कटाक्ष अप्रसन्नता से, कुटिल संकेत रोष से पूछा है- <br>‘कनु ‘यह कान्ह आखिर तेरा है कौन है री, बोलती क्यों नहीं?’<br><br>
बार-बार मुझ से मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पाई तुम मेरे गुरुजनों ने <br>कठोरता से, अप्रसन्नता से, रोष से पूछा है- <br>‘यह कान्ह आखिर तेरा है सचमुच कौन?’<br><br>हो कनु !
मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पायी <br>अक्सर जब तुम ने माला गूँथने के लिए कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे सचमुच कौन हो कनुलिए श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर मेरे आँचल में डाल दिये हैं तो मैंने अत्यन्त सहज प्रीति से गरदन झटका कर वेणी झुलाते हुए कहा है : ‘कनु ही मेरा एकमात्र अंतरंग सखा है !<br><br>’
अक्सर जब तुम ने <br>माला गूँथने दावाग्नि में सुलगती डालियों, टूटते वृक्षों, हहराती हुई लपटों और घुटते हुए धुएँ के लिए <br>बीच निरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हुई मुझे कँटीले झाड़ों साहसपूर्वक अपने दोनों हाथों में चढ़फूल की थाली-चढ़ सी सहेज कर मेरे लिए <br>उठा लियाश्वेत रतनारे करौंदे तोड़ और लपटें चीर कर <br>मेरे आँचल में डाल दिये हैं <br>बाहर ले आये तो मैंने अत्यन्त सहज प्रीति आदर, आभार और प्रगाढ़ स्नेह से <br>गरदन झटका कर <br>वेणी झुलाते हुए भरे-भरे स्वर में कहा है:<br> ‘कनु ही ‘कान्हा मेरा एकमात्र अंतरंग सखा रक्षक है!’<br><br>, मेरा बन्धु है सहोदर है।’
अक्सर जब तुम ने <br>दावाग्नि में सुलगती डालियों, <br>टूटते वृक्षों, हहराती हुई लपटों और <br>घुटते हुए धुएँ के बीच <br>निरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हुई <br>मुझे <br>साहसपूर्वक अपने दोनों हाथों में <br>फूल की थाली-सी सहेज कर उठा लिया<br> और लपटें चीर कर बाहर ले आये <br>तो मैंने आदर, आभार और प्रगाढ़ स्नेह से <br>भरे-भरे स्वर में कहा है: <br>‘कान्हा मेरा रक्षक है, मेरा बन्धु है <br>सहोदर है।’<br><br> अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है <br>और मैं मोहित मृगी-सी भागती चली आयी हूँ <br>और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस लिया है <br>
तो मैंने डूब कर कहा है: <br>
‘कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’<br><br>
पर जब तुम ने दुष्टता से <br>अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छेड़ा है <br>तब मैंने खीझ कर <br>आँखों में आँसू भर कर <br>शपथें खा-खा कर <br>सखी से कहा है: <br>‘कान्हा मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है <br>मैं कसम खाकर कहती हूँ <br>मेरा कोई नहीं है!’<br><br>
पर दूसरे ही क्षण <br>जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं <br>और बिजली तड़पने लगी है <br>और घनी वर्षा होने लगी है <br>और सारे वनपथ धुँधला कर छिप गये हैं <br>तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दुबका लिया है <br>तुम्हें सहारा दे-दे कर <br>अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आयी आई हूँ <br>और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे! <br>कि उस समय मैं बिलकुल भूल गयी हूँ <br>कि मैं कितनी छोटी हूँ <br>और तुम वही कान्हा हो <br>जो सारे वृन्दावन को <br>जलप्रलय से बचाने की सामर्थ्य रखते हो, <br>और मुझे केवल यही लगा है <br>कि तुम एक छोटे-से शिशु हो <br>असहाय, वर्षा में भीग-भीग कर <br>मेरे आँचल में दुबके हुए<br><br>
और जब मैंने सखियों को बताया कि<br> गाँव की सीमा पर <br>छितवन की छाँह में खड़े हो कर <br>ममता से मैंने अपने वक्ष में <br>उस छौने का ठण्डा माथा दुबका कर<br> अपने आँचल से उसके घने घुँघराले बाल पोंछ दिये <br>दिएतो मेरे उस सहज उद्गार पर <br>सखियाँ क्यों कुटिलता से मुसकाने लगीं <br>यह मैं आज तक नहीं समझ पायी!<br><br>
लेकिन जब तुम्हीं ने बन्धु <br>तेज से प्रदीप्त हो कर इन्द्र को ललकारा है, <br>कालिय की खोज में विषैली यमुना को मथ डाला है<br> तो मुझे अकस्मात् लगा है <br>कि मेरे अंग-अंग से ज्योति फूटी पड़ रही है <br>तुम्हारी शक्ति तो मैं ही हूँ <br>तुम्हारा संबल, <br>तुम्हारी योगमाया, <br>इस निखिल पारावार में ही परिव्याप्त हूँ <br>विराट्, <br>सीमाहीन, <br>अदम्य, <br>दुर्दान्त;<br><br>
किन्तु दूसरे ही क्षण<br> जब तुम ने वेतसलता-कुंज में <br>गहराती हुई गोधूलि वेला में <br>आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से <br>अपनी एक चुटकी में भर कर <br>मेरे सीमन्त पर बिखेर दिया <br>तो मैं हतप्रभ रह गयी <br>मुझे लगा इस निखिल पारावार में <br>शक्ति-सी, ज्योति-सी, गति-सी <br>फैली हुई मैं <br>अकस्मात् सिमट आयी हूँ <br>सीमा में बँध गयी हूँ <br>ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह?<br><br>
पर जब मुझे चेत हुआ <br>तो मैंने पाया कि हाय सीमा कैसी <br>मैं तो वह हूँ जिसे दिग्वधू कहते हैं, कालवधू- <br>समय और दिशाओं की सीमाहीन पगडंडियों पर <br>अनन्त काल से, अनन्त दिशाओं में <br>तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हूँ, चलती<br> चली जाऊँगी... <br><br>
इस यात्रा का आदि न तो तुम्हें स्मरण है न मुझे <br>और अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं मेरे सहयात्री!<br><br>
पर तुम इतने निठुर हो <br>और इतने आतुर कि <br>तुमने चाहा है कि मैं इसी जन्म में <br>इसी थोड़-सी अवधि में जन्म-जन्मांतर की <br>समस्त यात्राएँ फिर से दोहरा लूँ <br>और इसी लिए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडंडी पर <br>क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ <br>मुझे इतने आकस्मिक मोड़ लेने पड़े हैं <br>कि मैं बिलकुल भूल ही गयी हूँ कि <br>मैं अब कहाँ हूँ <br>और तुम मेरे कौन हो<br> और इस निराधार भूमि पर <br>चारों ओर से पूछे जाते हुए प्रश्नों की बौछार से <br>घबरा कर मैंने बार-बार <br>तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है। <br>सखा-बन्धु-आराध्य <br>शिशु-दिव्य-सहचर <br>और अपने को नयी व्याख्याएँ देनी चाही हैं <br>सखी-साधिका-बान्धवी- <br>माँ-वधू-सहचरी <br>और मैं बार-बार नये-नये रूपों में <br>उमड़- उम़ड कर <br>तुम्हारे तट तक आयी <br>और तुम ने हर बार अथाह समुद्र की भाँति <br>मुझे धारण कर लिया- <br>विलीन कर लिया- <br>फिर भी अकूल बने रहे<br><br>
मेरे साँवले समुद्र <br>तुम आखिर हो मेरे कौन<br> मैं इसे कभी माप क्यों नहीं पाती?<br><br/poem>