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|रचनाकार=अनिल जनविजय
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होली का दिन था
 
भंग पी ली थी हम ने उस शाम
 
घूम रहे थे, झूम रहे थे
 
माल रोड पर बीच-सड़क हम सरेआम
 
 
नशे में थी तू परेशान कुछ
 
गुस्से में मुझ पर दहाड़ रही थी
 
बरबाद किया है जीवन तेरा मैं ने
 
कहकर मुझे लताड़ रही थी
 
 
मैं सकते में था
 
किसी चूहे-सा डरा हुआ था
 
ऊपर से सहज लगता था पर
 
भीतर गले-गले तक भरा हुआ था
 
 
तू पास थी मेरे उस पल-छिन
 
बहुत साथ तेरा मुझे भाता था
 
औ' उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे
 
यह विचार भी मन में आता था
 
 
 
(रचनाकाल : 2006)
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