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इक शख्स था / मख़दूम मोहिउद्दीन

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<poem>
इक शख्स था ज़माना था के दीवाना बना
इक अफसाना था अफसाने से अफसाना बना

इक परी चेहरा के जिस चेहरे से आइना बना
दिल के आइना दर आइना परीखाना बना

कीमि-ए-शब् में निकल आता है गाहे गाहे
एक आहू कभी अपना कभी बेगाना बना

है चरागाँ ही चरागाँ सरे अरिज सरेजाम
रंग सद जलवा जाना न सनमखाना बना

एक झोंका तेरे पहलू का महकती हुई याद
एक लम्हा तेरी दिलदारी का क्या क्या न बना
</poem>