{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
}}{{KKCatKavita}}[[Category:लम्बी रचना]]{{KKPageNavigation|पीछे=विनयावली() * [[पद 241 से 250 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 241]]|आगे=विनयावली() * [[पद 241 से 250 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 262]]|सारणी=विनयावली() * [[पद 241 से 250 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3]]}}<poem>'''* [[पद 241 से 250 तक'''/ तुलसीदास/ पृष्ठ 4]](245) मेहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो। याके लिये सुनहु करूनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो।। सीतल, मधुर, पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जनु खोयो। बहु भाँतिन स्त्रम करत मोहबस,बृथहि मंदमति बारि बिलोयो।। करम-कीच जिय जानि, सानिचित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो। तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो।। तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो। डासत ही बीति गयी निसा सब, कहहूँ न नाथ! नींद भरि सोयो।। <* [[पद 241 से 250 तक /poem>तुलसीदास/ पृष्ठ 5]]