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इसमें दो मत नहीं कि स्वतंत्रता के बाद हिंदी-गीत परिष्कृत ऊर्जा और नये संस्कारों के साथ उत्तरोत्तर विकास करता रहा । लेकिन रंग जी के ज़माने में गीत केवल गीत ही हुआ करता था, गीत में नये-पुराने की कोई बात नहीं थी। जो श्रेष्ठ है उसे अंगीकार करना बदलते रहने के परिवेश का एक दर्शन ही है। रंग जी का विश्वास रहा है कि पुराने को ही और अधिक परिष्कृत, संस्कारित और विकसित कर नया रूप दिया जाए। उनका विश्वास है-
 
वह नहीं नूतन कि जो प्राचीनता की जड़ हिला दे
भूल के इतिहास का आभास ही मन से मिटा दे
जो पुरातन को नया कर दे मैं उसे नूतन कहूँगा ।
 
इसलिये रंग जी और उनके बाद की पीढ़ी ने गीत को केवल गीत समझकर जिया। उनके समकालीन और उनकी अँगुली पकड़कर मंच पर चढ़े अनेक गीतकार शिल्प और कथ्य की दृष्टि से रंग जी तक नहीं पहुंच सके। नीरज के 'कारवां गुज़र गया' या बच्चन के 'इस पार प्रिये' की तरह एक समय में रंग जी का यह गीत गीत-प्रेमियों के मन और कंठ में प्रतिष्ठित हो गया था-
 
तुम्हारी शपथ मैं तुम्हारा नहीं हूँ
भटकती लहर हूँ किनारा नहीं हूँ ।
हिंदी गीतिकाव्य के उद्गम काल से सौंदर्यपरक रचनाओं में प्रेम को अत्यंत सरल शब्दों और नए प्रतीकों में गाया गया है। छायावाद के पूर्व और बाद में गीतिकाव्य की एक पीढ़ी ने एक पंक्ति से गीत उठाकर उसे अंतिम पंक्ति तक प्रेम भाव से अभिसिंचित किया । इन सभी कालों में प्रेमाभिव्यक्ति का शिल्प और भाव अलग-अलग रहे । शब्द के माध्यम से इंगित करने की रंग जी की प्रतिभा इन सभी से अलग थी । उनका अपना अलग ही मौलिक काव्य-रूप है जैसे उन्होंने एक गीत में कहा है-
 
किसी के गीत का लेकर सहारा तुम्हें अब गुनगुनाना आ गया है ।
तुम्हारे साथ निर्झर गा रहे हैं तुम्हारी कीर्ति के घन छा रहे हैं ।
जहाँ दुख और सुख का आत्मदर्शन हमें रंग जी की पीड़ा की गहराइयों में ले चलता है वहाँ इन पीड़ाओं को श्रेष्ठ भी बना देता है-
 
दुख का अनुभव करना ही दुख
सुख का अनुभव करना ही सुख
सुख-दुख की थाह यहीं तक थी
क्या मेरी राह यहीं तक थी ?
 
रंग जी की रचनाओं में जीवन के प्रति आसक्ति का भाव सबसे हटकर एक अलग रंग पैदा करने की सामर्थ्य रखता है, काल का कठोर सामना करने को वह हमेशा तत्पर दिखाई देते हैं । जीवन के इस सत्य का रूप रंग जी के जीवन में एक यात्रा से अधिक कुछ नहीं है-
 
आएँ हैं तो जाना होगा शाश्वत नियम निभाना होगा
सूरज रोज़ किया करता है चलने की तैयारी
रंग जी के गीतों में उनके स्वाभिमान, विनम्रता और उदार हृदय की झलक इन पंक्तियों में दृष्टव्य है-
 
पराजय क्यों करूँ स्वीकार, मुझसे यह नहीं होगा,
किसी के प्रति रहूँ अनुदार मुझसे यह नहीं होगा ।
स्वयं को मान लूँ अवतार मुझसे यह नहीं होगा ।
 
इस प्रकार उनकी कई रचनाओं में एक पंक्ति का बार-बार दुहराव गीत के सौंदर्य में एक प्रकार का चमत्कार उत्पन्न करता है।
हिंदी कविता के पाठक और कविता के समीक्षक, समालोचक इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि रंग जी ने गीतों और ग़ज़लों को एक साथ ईमानदारी से जिया । ग़ज़लों में अगर उन्होंने उर्दू का शब्द प्रयोग किया तो उनकी हिंदी ग़ज़लें भी हमेशा उल्लेखनीय कही जाती रहीं । सही अर्थों में हिंदी ग़ज़ल का उदगम रंग जी से ही हुआ। यह बात अलग है कि रंग जी के सृजन का सही मूल्यांकन उस समय नहीं हो सका ।
रंग जी के गीतों का कथ्य व्यक्तिवादी न होकर सार्वजनीन अधिक है । उन्होंने जीवन के तिलमिला देने वाले दर्द को भी बहुत सौम्यता से अभिव्यक्त किया । रंग जी के गीत और ग़ज़ल छांदसिक दृष्टि से भले ही पृथक लगें किंतु उनकी रागात्मकता और संगीतात्मकता में एकदम सामीप्य है, इसलिये दोनों में भेद कर पाना कठिन है। जैसे-
 
हमने तनहाई में ज़ंजीर से बातें की हैं
अपनी सोई हुई तक़दीर से बातें की हैं
यह एक ऐसी ग़ज़ल का नमूना है जिसमें शब्द-चयन की दृष्टि से हिंदी-उर्दू का गंगा-जमुनी ताल-मेल है, अब उनके शुद्ध हिंदी गीत की पंक्तियाँ देखिए-
 
हर समय हर बात तुमसे क्या कहूँ मैं, हर कोई हर बात कह पाता नहीं है ।
और हर आघात सह पाता नहीं है
स्वर्गीय रंग जी के गीतों की दिशाओं में उलझन और भटकन न होने से उनके गीति-तत्व को खोज लेना किसी भी कविता-प्रेमी के लिए आसान है। वास्तव में रंग जी ने ग़ज़लों को दो तरह का आयाम दिया एक ओर तो उनकी ग़ज़लों में हिंदी-उर्दू का सम्मिश्रण है जैसे-
 
तुमको मेरी ख़बर कहाँ होगी
ऐसी मुझ पर नज़र कहाँ होगी
रात काटी तेरे ख़यालों में,
अब न जाने सहर कहाँ होगी
 
तो दूसरी ओर-
 
ऋतु सुहानी हुई, हुई न हुई
आग पानी हुई, हुई न हुई ।
 
जैसी ग़ज़लों में शुद्ध हिंदी का स्वर गूँजता है। यह एक आश्चर्य-मिश्रित सत्य है कि रंग जी ने गीत और ग़ज़ल का सृजन साथ-साथ किया। वह ग़ज़ल के लिए किसी मदरसे में नहीं गए और गीत के लिए उन्होंने छंद-विधान के किसी विद्यालय में दाख़िला नहीं लिया। शब्दों को कई अर्थों में अपने गीतों में प्रयुक्त करने में वह एक सिद्धहस्त गीतकार थे। उनका एक अत्यंत लोकप्रिय गीत है-
 
अब मुझको तुमसे मिलने की, आशा कम विश्वास बहुत है ।
क्या चिंता धरती यदि छूटी, उड़ने को आकाश बहुत है ।
 
उनके गीतकार कवि का मन इस गीत में दो प्रकार की स्थितियों को ढो रहा है। मिलन की आशा कम होते हुए भी विश्वास उन्हें संबल प्रदान करता है ।
यह एक सुखद पक्ष है कि उस समय गीत को गीतकार द्वारा जिया जाता था। आज, जब भी रंग जी के बाद वर्तमान गीतकारों के नामों की चर्चा होती है, तब अनेक को रंग की पाठशाला का छात्र माना जाता है। एक विशेषता रंग जी के गीतों में यह भी है कि उनकी गीत प्रस्तुति का सौंदर्य नितांत मौलिक था, उन्होंने अपनी एक हिंदी ग़ज़ल में कहा है-
 
रंग के बाद सँवारेगा कौन महफ़िल को
कोई तो नाम बताओ बड़ी कृपा होगी ।
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