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'''लक्ष्मण मूर्च्छा '''
'''( छंद संख्या (52) (53) )''' (52) मानी मेघनादसों प्रचारि भिरे भारी भट, आपने अपन पुरूषारथ न ढील की।। घायल लखनलालु लखि बिलखाने रामु, भई आस सिथिल जगन्निवास-दीलकी।। भाई को न मोहु छोहु सीयको न तुलसीस, कहैं ‘मैं बिभीषनकी कछु न सबील की’। लाज बाँह बोलेकी, नेवाजेकी सँभार-सार, साहेबु न रामु-से बलाइँ सीलकी।52। (53) कानन बासु! छसाननु सो रिपु, आननश्री ससि जीति लियो है। बालि महा बलसालि दल्यो, कपि पालि बिभीषनु भूपु कियो है।। तीय हरी, रन बंधु पर्यो , पै भर्यो सरनागत सोच हियो है। बाँह पगार उदार कृपालु कहाँ रघुबीरू सो बीरू बियो है।53।
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