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{{KKRachna
|रचनाकार=कीर्ति चौधरी |संग्रह=’तीसरा सप्तक’ में शामिल रचनाएँ / कीर्ति चौधरी}} {{KKCatNavgeet}}<poem>बरसते हैं मेघ झर-झर
बरसते हैं मेघ झर-झर<br>भीगती है धराउड़ती गंधचाहता मनछोड़ दूँ निर्बंधतन को, यहीं भीगेभीग जाएदेह का हर रंध्र
भीगती है धरा<br>रंध्रों में समाती स्निग्ध रस की धारउड़ती गंध<br>प्राणों में अहर्निश जल रहीचाहता मन<br>छोड़ दूँ निर्बंध<br>तन को, यहीं भीगे<br>ज्वाला बुझाएभीग जाए<br>देह का हर रंध्र<br><br>भीगता रह जाए बस उत्ताप!
रंध्रों में समाती स्निग्ध रस की धार<br>प्राणों में अहर्निश जल रही<br>ज्वाला बुझाए<br>भीग जाए<br>भीगता रह जाए बस उत्ताप!<br><br>बरसते हैं मेघ झर-झर
बरसते हैं मेघ झर-झर<br>अलक माथे पर<br>बिछलती बूँद मेरे<br>मैं नयन को मूँद<br>बाहों में अमिय रस धार घेरे<br>आह! हिमशीतल सुहानी शांति<br>बिखरी है चतुर्दिक<br>एक जो अभिशप्त<br>वह उत्तप्त अंतर<br>दहे ही जाता निरंतर<br> बरसते हैं मेघ झर-झर<br/poem>
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