भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
भटकी भटकी सी प्रतिभाएं
चली ओढ़ कर अंधकार की
अजब ओेढ़नी ओढ़नी धूप,
न जाने क्या होगा
समृतिमय हर रोम रोम है
एक उपेक्षित शेष व्योम है
क्षितिज अंगुलियों में फंस कर फंसकर फिर
फिसल गई है धूप
न जाने क्या होगा