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आज के नवगीतकारें में स्व0 नीलम श्रीवास्तव, उमाकान्त मालवीय, रामसेन्गर, कुमार रवीन्द्र, शिवबहादुर सिंह आदि नामों के मध्य प्रमुखता से स्थापित नाम है शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान। नवगीत भाषा और शिल्प की दृष्टि से पारम्परिक गीत-धारा से नितान्त भिन्न होने के साथ-साथ नयी कविता के कथ्य और शिल्प से भी अलग है। नवगीत का शिल्प विधान ही उसकी विशेषता है जो उसे कविता की अन्य विधाओं से कुछ अलग हटकर स्थापित करती है।
श्री [[शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान]] का जन्म जनपद लखनऊ के दादूपुर ग्राम में कवि स्व0 श्री ब्रहृमा सिंह के घर 15 जुलाई 1955 को हुआ। पिता की साहित्यिक अभिरूचियों का प्रभाव स्वाभाविक रूप से सन्तानों पर पडा। इनके अनुज श्री [[उमेश कुमार सिंह चौहान]] तथा श्री ज्ञानेन्द्र जी भी साहित्यिक क्षेत्रों के प्रतिष्ठित नाम है। कविता में भाव-प्रधान तथा चिन्तन-प्रधान दोनो तरह की कविताओं का वे पृथक-पृथक महत्व रेखांकित करते हैं। वे छन्दबद्ध तथा छन्दमुक्त विधा में अच्छी कविता को महत्व देते हैं। परन्तु उनका मानना है कि लय का सीधा सम्बन्ध मनुष्य की चेतना से होता है, जिससे छन्दबद्ध कविता की गीतात्मकता का अंश मनुष्य को और गहराई तक स्पर्श करता है।
अपने छात्र जीवन से ही लिखना प्रारंभ करते हुए राजकीय सेवा में आगमन के उपरांत वे प्रशासनिक दायित्यों के साथ-साथ अपनी रचनात्मकता को भी सँवारते और सहेजते रहे। इनकी अनेक रचनाएँ साहित्य भारती, नवनीत, अतएव, सार्थक, ‘बालवाणी’, ‘राष्ट्रधर्म’, ‘अपरिहार्य’ प्रेसमैन, समयान्तर, ग्रामीण अंचल, रैनबसेरा, ‘संकल्प रथ’ ‘शब्द’ ‘नये पुराने’ ‘सार्थक’ ‘ज्ञान-विज्ञान’ ‘तरकश’ ‘अवध अर्चना’ ‘अंचल भारती’ ‘उत्तरायण’ ‘स्वतंत्र भारत’ आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों बार स्फुट रूप से प्रकाशित होती रहीं। कई वर्षों तक स्फुट प्रकाशित होने के बाद 1997 में इनका पहला गीत-संग्रह ‘टूटते तिलिस्म’ प्रकाशित हुआ, जिसमे एक कुशल शिल्पी की भाँति उन्होंने प्रशासनिक सेवा की विवशताओं के साथ अपने अंतरमन की कशमकश को कविता के दर्द के रूप में इस प्रकार उकेरा है :-
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