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चाँद की नाव में तारों की सवारी निकली,
उफ़क़ परे से ताकता ही रहा… रहाडूबते देखी है साहिल में भी कश्ती मैंने!
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तेरी यादों की तितलियों ने सताया था बहुत,
रोज़ आ जाती थीं चुप-चाप दबे पाँव यहाँ…यहाँ
मेरे मायूस गुले-दिल को छेड़ने के लिए!
ज़बीं से पोंछते अरक़ क्यूँ हो?
नहीं है हम से सरोकार अगर,
तो फिर पलटते ही वरक़ क्यूँ हो?
अगर तू देखे खोल कर मेरी किताबे-हयात,
हर इक पन्ने पे वही हर्फे-मुनक्क़श होगा…होगा
मेरे ही साथ मिटा पाएँगे वो नाम तेरा!