Changes

भारत महिमा / जयशंकर प्रसाद

124 bytes removed, 10:28, 15 अगस्त 2013
त्रुटियों का निवारण
{{KKRachna
|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
}}{{KKCatKavita}}
{{KKAnthologyDeshBkthi}}
{{KKPrasiddhRachna}}
<poem>
हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार
हिमालय के आँगन जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में उसेफैला फिर आलोक व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, प्रथम किरणों का दे उपहार । अखिल संसृति हो उठी अशोक
उषा विमल वाणी ने हँस अभिनंदन कियावीणा ली, और पहनाया हीरककमल कोमल कर में सप्रीत सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-हार ।। संगीत
जगे हमबचाकर बीज रूप से सृष्टि, लगे जगाने विश्वनाव पर झेल प्रलय का शीत अरुण-केतन लेकर निज हाथ, लोक में फैला फिर आलोक । वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत
व्योम-तुम पुँज हुआ तब नाशसुना है वह दधीचि का त्याग, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।। हमारी जातीयता विकास पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास
विमल वाणी ने वीणा लीसिंधु-सा विस्तृत और अथाह, कमल कोमल कर एक निर्वासित का उत्साह दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में सप्रीत । वह राह
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठेधर्म का ले लेकर जो नाम, छिड़ा तब मधुर सामहुआ करती बलि कर दी बंद हमीं ने दिया शांति-संगीत ।। संदेश, सुखी होते देकर आनंद
बचाकर बीच रूप से सृष्टिविजय केवल लोहे की नहीं, नाव धर्म की रही धरा पर झेल प्रलय का शीत । धूम भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम
अरुण-केतन लेकर निज हाथयवन को दिया दया का दान, वरुणचीन को मिली धर्म की दृष्टि मिला था स्वर्ण-पथ में हम बढ़े अभीत ।। भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि
सुना है वह दधीचि किसी का त्यागहमने छीना नहीं, हमारी जातीयता प्रकृति का विकास । रहा पालना यहीं हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग जातियों का मेरा इतिहास ।। उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर
सिंधु-सा विस्तृत और अथाहचरित थे पूत, एक निर्वासित का उत्साह । भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न
दे रही अभी दिखाई भग्नहमारे संचय में था दान, मग्न रत्नाकर अतिथि थे सदा हमारे देव वचन में वह राह ।। सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान
 धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।  हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।  विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।  भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।  यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।  मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।  किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।  हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।  जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।  खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।  चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।  हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।  हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।  वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।  वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।  वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।  जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।</poem>
59
edits