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1957 में केदारनाथ अग्रवाल जी का तीसरा कविता संग्रह '''लोक आलोक''' इलाहाबाद से छपा जिसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है
‘... कवितायी ‘कविताई न मैने पायीपाई, न चुरायी चुराई मैने इसे जीवन जोतकर , किसान की तरह बोया और काटा है यह मेरी अपनी है और मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है ..,
'''तथा''' उन्होंने अपने मन को व्यक्त करते हुए लिखा है कि यदि वे काव्यसृजन और पठन -पाठन के रास्ते पर नहीं चलते तो क्या होते
‘.. लक्ष्मी ‘लक्ष्मी के वाहन बनकर कम पढ़े मूढ मूढ़-महाजन होते जो अपने जीवन का एकमात्र ध्येय काग़ज के नोटों का संचयन करने को बना लेता है .. ...यह कविता ही थी जिसने मुझे इस योग्य बनाया कि मै जीवन -निर्वाह के लिए उसी हद तक अर्थाजन करूं करूँ जिस हद तक आदमी बना रह सकता हूँ। हूँ । ,
</poem>
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