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तुम्हारे अंतस से नि:सृत
 
तुम्हारी दुनिया लौट जाती है
 
हर बार तुम्हारे ही भीतर
 
हमें पता है
 
तुमने ही नहीं
 
तुम्हारे किरदारों ने भी
 
तुम्हें रचा है
 
और अपने किरदारों की ही दुनिया में
 
अंतत: रचने-बसने के लिए
 
चुन लिया तुमने
 
किराए का साझा एक घर
 
अंतिम अरण्य तुम्हारा अपना चुनाव था
 
मृत्यु में जीवन और जीवन में मृत्यु को
 
अपनी देह से दूर छिटक कर
 
देखने परखने का.....
 
अपनी दुनिया के बीहड़ में
 
होने और न होने के बीच
 
संपूर्णता में घटित होने का....
 
और जहाँ तुमने
 
आखिर राख हो चुकी देह से
 
चुन लीं अपनी ही अस्थियाँ
 
पहाड़ और निर्जन एक नदी
 
जिसमें अवाक् हम देख सकें
 
दूर गगन से
 
फूल की तरह झरती
 
कोमल आकांक्षाओं-आस्थाओं की
 
तुम्हारी अंतिम सुरक्षित पोटली
 
हम तो हम
 
प्राग के पतझड़ों
 
दिल्ली की गर्मियों की उदास लंबी दोपहरों
 
को भी इंतज़ार रहेगा तुम्हारा
 
क्योंकि हर बार वे उतरती रहीं
 
तुम्हारी दुनिया में ठीक तुम्हारी ही तरह.....
 
पहाड़ चीड़ और चांदनी
 
संवेदना और स्मृतियों से धुल-छन कर आतीं
 
गहन उदासियाँ, एकाकीपन
 
और एक चिथड़ा सुख की तलाश में
 
काँपते-थरथराते दुख से दीप्त चेहरे
 
तुम्हारे भी जीवन का ठौर बताते हैं
 
तुम छुपते रहे अपने शब्दों में
 
मगर हमने खंड-खंड संपूर्ण
 
पा लिया तुम्हें
 
दो शब्दों के बीच
 
तुम्हारी खामोशियों में
 
तुम अपनी दुनिया में
 
जहाँ कहीं भी थे
 अज्ञेय कहां थे......</poem>
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पुण्य तिथि : 25 अक्तूबर