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(72)'''रङ्गभूमिमें'''रङ्गभूमि आए, दसरथके किसोर हैं |पेखनो सो पेखन चले हैं पुर-नर-नारि,बारे-बूढ़े, अंध-पङ्गु करत निहोर हैं || नील पीत नीरज कनक मरकत घनदामिनी-बरन तनु रुपके निचोर हैं |सहज सलोने, राम-लषन ललित नाम, जैसे सुने तैसेई कुँवर सिरमौर हैं || चरन-सरोज, चारु जङ्घा जानु ऊरु कटि,कन्धर बिसाल, बाहु बड़े बरजोर हैं |नीकेकै निषङ्ग कसे, करकमलनि लसैबान-बिसिषासन मनोहर कठोर हैं || काननि कनकफूल, उपबीत अनुकूल, पियरे दुकूल बिलसत आछे छोर हैं |राजिव नयन, बिधुबदन टिपारे सिर,नख-सिख अंगनि ठगौरी ठौर ठौर हैं || सभा-सरवर लोक-कोक-नद-कोकगनप्रमुदित मन देखि दिनमनि भोर हैं |अबुध असैले मन-मैले महिपाल भये,कछुक उलूक कछु कुमुद चकोर हैं || भाईसों कहत बात, कौसिकहि सकुचात,बोल घन घोर-से बोलत थोर-थोर हैं |सनमुख सबहि, बिलोकत सबहि नीके,कृपासों हेरत हँसि तुलसीकी ओर हैं ||
पूजि पारबती भले भाय पाँय परिकै |
सजल सुलोचन, सिथिल तनु पुलकित,
आवै न बचन, मन रह्यो प्रेम भरिकै ||
अंतरजामिनि भवभामिनि स्वामिनिसों हौं,
कही चाहौं बात, मातु अंत तौ हौं लरिकै |
मूरति कृपालु मञ्जु माल दै बोलत भई,
पूजो मन कामना भावतो बरु बरिकै ||
राम कामतरु पाइ, बेलि ज्यों बौण्ड़ी बनाइ,
माँग-कोषि तोषि-पोषि, फैलि-फूलि-फरिकै |
रहौगी, कहौगी तब, साँची कही अंबा सिय,
गहे पाँय द्वै, उठाय, माथे हाथ धरिकै ||
मुदित असीस सुनि, सीस नाइ पुनि पुनि,
बिदा भई देवीसों जननि डर डरिकै |
हरषीं सहेली, भयो भावतो, गावतीं गीत,
गवनी भवन तुलसीस-हियो हरिकै ||
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