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आने वाले दिनों में कविता / नील कमल
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19:30, 4 जून 2011
थक चुकी होगी वह
नहीं पूछेंगे लोग उसे
कौड़ी के मोल
माना कि क्राँति-बीज के
भ्रूण नहीं तैयार होंगे
गर्भ में उसके
उदास किसी पत्ती पर
रात लिखेगी मर्सिया
भोर की रोशनी भी
क़ैद हो जाएगी कल
काली गुफ़ाओं में
दिहाड़ी खटते मज़दूर
के पपड़ियाए होठों पर
चस्पाँ होगी वह
भाड़ में अकेले चने-सी
खनखनाएगी, भले वह
हार भी जाएगी
कविता फिर भी लिखी जाएगी
उनसे न तोड़ी जायेगी
बड़े से बड़े तिलिस्म की चाबी
ढूँढ़ता वक़्त
आएगा बार-बार उसी के पास
अनिल जनविजय
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