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ऐ ख़ुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्ज़ हम्द <ref>प्रशंसा </ref> से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
थी तो मौजूद अज़ल <ref>आदि</ref> से ही तेरी ज़ात-ए-क़दीम<ref> पुराने जीव </ref>
फूल था ज़ेब-ए-चमन, पर न परेशान थी शमीम<ref> सुगंध</ref> ।
शर्त-ए-इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीं ।
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
कहीं थे मस्जूद<ref>पूज्य (जिसका सजदा किया जाय), शज़र</ref> ते पत्थर, कहीं माबूद<ref>पूज्य</ref> शजर<ref>पेड़</ref>
खूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसा की नज़र
मानता फ़िर कोई अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर
पाँव शेरों के भी मैदां से उखड़ जाते थे ।
तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे
नक़्श तौहीद<ref>त'वाहिद, एकत्व. यानि ये कहना कि अल्लाह एक है और उसके स्वरूप, तस्वीर, मूर्तियां या अवतार नहीं हैं, अरबी गिनती में वाहिद का अर्थ 'एक' होता है ।</ref> का हर दिल पे बिठाया हमने
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
क़िब्ला रूहों के ज़मीं बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़ ।
एक ही सम्त में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़ <ref> सुत्लान महमूद ग़ज़नी का एक ग़ुलाम अयाज़ नाम से का था जिसकी बन्दगी से ख़ुश होकर सुल्तान ने उसे शाह का दर्जा दिया था और लाहौर को सन् १०२१ में बड़ी मुश्किलों से जीतने के बाद, उसे वहाँ का राजा बनाया था । </ref>
न कोई बन्दा रहा, और न कोई बन्दा नवाज़ ।