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शिकवा / इक़बाल

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''टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों इस्लाम के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।''
क्यूँ ज़ियाकार बनूँ, सूद फ़रामोश रहूँ
तुझकों छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी को छोड़ा
बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी को छोड़ा ?
इश्क को, इश्क़ की आशुक्तासरी आशुफ़्तासरी को छोड़ा
रस्म-ए-सलमानो-कुवैश-ए-करनी को छोड़ा
ज्यादा पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रिज़ा भी न सही ।
मुज़्तरिब दिल सिफ़त-ए-ख़िबलानुमा भी न सही
और पाबंदी ए आईना आईन--वफ़ा भी न सही ।
कभी हमसे कभी ग़ैरों से शनासाई है
दे हिजाबां न सू-ए-महफ़िल-ए-माबाई
वादाकश बादाकश ग़ैर हैं, गुलशन में लब-ए-जू <ref>झरने के किनारे </ref> बैठेसुनते हैं जाम बकफ़<ref>हथेली पर </ref>, नग़मा-ए-कू-कू बैठे ।दूर हंगामा-ए-गुल्ज़ार से यकसू <ref>एक तरफ़ </ref> बैठे
तेरे दीवाने भी है मुंतज़र-ए-तू बैठे ।
जू-ए-ख़ूनी चकदत हसरतें तेरी न ईमामख़ून मीचकद अज़ हसरते दैर इना मा ।मीतकत मीतपद नाला बनिश्तर ब-नश्तर कदा-यहना मा । <ref> फ़ारसी में लिखी पंक्ति का अर्थ है -ख़ून की धार हमारी हसरतों से निकलती है, और छुरी से हमारे चीखने की आवाज़ आती है । (अपूर्ण अनुवाद है ।) </ref>
बू-ए-गुल ले गई बेरूह-ए-चमन राज़-ए-चमन
इसके सीने में हैं नग़मों का तलातुम अबतक ।
कुमरियां क़ुमरियां साख़-ए-सनोवर <ref>पाईन, एक प्रकार का पेड़ ।</ref> से गुरेज़ां भी हुई ।
पत्तिया फूल की झड़-झड़ की परीशां भी हुई ।
वो पुरानी रविशें बाग़ की वीरां भी हुई ।
डालियां पैरहन-ए-बर्ग <ref>पत्तियों का पहनावा </ref> से उरियां भी हुई ।
क़ैद ए मौसम से तबीयत रही आज़ाद उसकी ।
फिर उसी बादा ए तेरी ना के प्यासे दिल हों ।
अजमी ख़ुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी <ref> अरब का प्रांत जिसमें मक्का और मदीना हैं </ref> है मेरी ।
नग़मा हिन्दी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मेरी ।
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