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Kavita Kosh से
अपनी तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं?
ये शियाकत नहीं, हैं उनके ख़ज़ाने मामूर।नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउर।कहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूर।और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वाबा-ए-हुज़ूर ।
अब वो अल्ताफ़ नहीं, हमपे हम पे इनायात महीं
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं ?
बनी अगियार की अब चाहने वाली दुनिया
रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया ।
हम तो रुक़सत रुख़सत हुए, औरों ने संभाली दुनिया
फ़िर न कहना कि हुई तौहीद से खाली दुनिया ।
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे, जाम रहे ?
तेरी महफिल भी गई चाहनेवाले भी गए।शब की आहें भी गईं, जुगनूं के नाले भी गए।दिल तुझे दे भी गए ,अपना सिला ले भी गए।आके बैठे भी न थे और निकाले भी गए।
आए उश्शाकउश्शाक़ <ref>आशिक़ का बहुवचन</ref>, गए वादा-ए-फरदा लेकर।अब उन्हें ढूँढ चराग-ए-रुख़-ज़ेबा लेकर।
दर्द-ए-लैला भी वहींवही, क़ैस <ref>लैला मजनूं की कहानी में मजनूं का वास्तविक नाम क़ैस था । मजनूं का नाम उसे पाग़ल बनने के बाद मिला । अरबी भाषा में मजनूं का शाब्दिक अर्थ पागल होता है । </ref> का पहलू भी वही।नज्द <ref>मध्य ईरान का रेगिस्तान </ref>के दश्त-ओ-जबल में रम-ए-आहू <ref>हिरण की चौकड़ी </ref> भी वही।इश्क़ का दिल भी वही, हुस्न का जादू भी वही।उम्मत-ए-अहद-मुरसल भी वही, तू भी वही।
फ़िर ये आज आरज़ू गुस्तगी, ये ग़ैर-ए-सबब क्या मानी?अपने शहदारो शअदाओं पर ये चश्म -ए-ग़ज़ब क्या मानी?
तुझकों छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी <ref>अरब का पैगम्बर यानि मुहम्मद </ref> को छोड़ा?
बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी को छोड़ा ?
इश्क को, इश्क़ की आशुफ़्तासरी <ref>रोमांच, पुलक</ref> को छोड़ा
रस्म-ए-सलमान-ओ-उवैश-ए-क़रनी को छोड़ा ?
आग तपती सी तकबीर <ref>ये स्वीकारना कि अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका दूत था, इस्लाम कबूल करना या करवाना </ref> की सीनों में दबी रखते हैं
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हवसी रखते हैं ।
बात कहने की नहीं, तू भी तो हरजाई है ।
सर-ए-फ़ाराँ से पे किया दीन को कामिल तूने।
इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तूने ।
आतिश अंदोश किया इश्क़ का हासिल तूने।फ़ूँक दी गर्मी-ए-रुख्सार से महफिल महफ़िल तूने ।
आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं?
हम वही शोख़ सा दामां, तुझे याद नहीं ?
वादी ए नज़्द में वो शोर-ए-सलासिल <ref>जंज़ीर </ref> न रहा।कैस क़ैस दीवाना-ए-नज्जारा-ए-महमिल न रहा।होसले हौसले वो न रहे, हम न रहे, दिल न रहा।
घर ये उजड़ा है कि तू रौनक-ए-महफ़िल न रहा ।
ऐ ख़ुसारू कि ख़ुश आं रूज़ के आइव बशद-ओए-बशद नाजाई।दे हिजाबां न बे हिजाज़ बा ना सू-ए-महफ़िल-ए-माबाईमाबाज़ आई ।
बादाकश ग़ैर हैं, गुलशन में लब-ए-जू <ref>झरने के किनारे </ref> बैठे
सुनते हैं जाम बकफ़<ref>हथेली पर </ref>, नग़मा-ए-कू-कू बैठे ।
दूर हंगामा-ए-गुल्ज़ार से यकसू <ref>एक तरफ़ </ref> बैठे
तेरे दीवाने भी है मुंतज़र-ए-तू हू बैठे ।
अपने परवानों को फ़िर ज़ौक-ए-ख़ुदअफ़रोज़ी दे।बर्के तेरी ना वो दैरीना को फ़रमान-ए-जिगर चोरी दे सोज़ी दे।
क़ौम-ए-आवारा इनाताब इनां ताब है फिर सू-ए-हिजाजहिजाज़ ।ले उड़ा बुलबुल-ए-बेपर को मदाके परवाज।मुज़्तरिब गाग़ बाग़ के हर गुंचे में हैबू-ए-नियाज़ ।तू ज़रा छेड़ तो दे तश्ना मिज़राब-ए-मिज़राज़ साज।
नगमें बेताब है तारों से निकलने के लिए।दूर तूर मुज्तर हैं उसी आग में जलने के लिए ।
मुश्किलें उम्मते उम्मत-ए-मरदूम की आसां कर दे ।
नूर-ए-बेमायां को अंदोश-ए-सुलेमां कर दे ।
इनके नायाब-ए-मुहब्बत को फ़िर अरज़ां कर दे
हिन्द के नए दैर नशीनों को मुसल्मान कर दे ।
जू-ए-ख़ून मीचकद अज़ हसरते दैर इना देरीना मा ।मीतपद नाला ब-नश्तर कदा-यहना सीना मा । <ref> फ़ारसी में लिखी पंक्ति का अर्थ है - ख़ून की धार हमारी हसरतों से निकलती है, और छुरी से हमारे चीखने की आवाज़ आती है । (अपूर्ण अनुवाद है ।) </ref>
बू-ए-गुल ले गई बेरूह-ए-चमन राज़-ए-चमन।क्या क़यामत है कि ख़ुद भूल है फूल हैं ग़माज़-ए-चमन।अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन।उड़ गए डालियों से जमजमा परदा-ए-परवाज़-ए-चमन ।
एक बुलबुल है कि है महव-ए-तरन्नुम <ref>संगीत में खोया </ref> अबतक ।इसके सीने में हैं नग़मों का तलातुम <ref>तूफ़ान</ref> अबतक ।
क़ुमरियां साख़-ए-सनोवर<ref>पाईन, एक प्रकार का पेड़ ।</ref> से गुरेज़ां भी हुई ।
काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उसकी ।
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी, न मज़ा जीने में।कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर सीने पीने में ।कितने बेताब हैं जौहर मेरे आईने में ।
किस क़दर जल्वे तड़पते है मेरे सीने में ।
</poem>
(कविता में बहुत सी अशुद्धियाँ है । इन्हें शब्दार्थों के साथ शीघ्र ही सुधारा जाएगा । तथा शोधन में सहयोग का स्वागत है।)
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