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|रचनाकार=रविशंकर पाण्डेय |संग्रह=इस आखेटक समय में / रविशंकर पाण्डेय
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'''लगा कहाँ कब रोग हमें''' दुख के दिन
करते रहे सचेतअन्त हीन-बराबरसमय-समय पर लोग हमेंऊँचे, उजाड़ से,सच को सचकहने का जानेदुख के दिनलगा कहाँ कब रोग हमेंफैले पहाड़ से!
लोकतंत्र में भीबैठे ठालेसच कहनासमय ऊँघताएक बगावत हैदिन दिन भर बजते खर्राटे,बैल मुझे आ मारबियाबान मेंगाँव कीरह-रह चुभतेकहीं कहावत हैयतेज-इसी जुुर्म मेंअकेलेपन के काँटेयचढ़ा कौन सुन रहा हैसूली पर आयोग हमेंइस जंगल मेंचीखो कितनागला फाड़ के!
सच के लिएदोपहरी-उठाने पड़तेठहरी ठहरी सीखतरे कई-कईसुबह उदासीशाम उदासी,सच्चाई केपीढ़ी भर काआड़े आतीदर्द समेटेमुश्किल नई-नईयरात ले रही ऊबासाँसी,सच के खातिरघुटन औरपड़े झेलनेचुप्पी को तोड़ेंकई-कई अभियोग हमेंचुप्पी से तोबेहतर ही हैआओ हम रोयें दहाड़ के!
कहते सत्यमेव जयतेजीवन कीपर जीते-अंधी सुरंग मेंझूठ फरेब रहेअवसादों केबिछे पलीते,गाँधी की फोटोएक एक पलके नीचेऐसे बीतेहोते सारे ऐब रहेयजैसे सौसब की तरह नआ पाये येमन्वंतर जीते,सच दफ्तर के कई प्रयोग हमेंऊँचे परकोटेपरकोटे-लगते तिहाड़ से!
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