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|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
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<poem>
लोहे की सलाखों पर
बूदों की पर्तें
और पुराने कागज पर
स्टेन्सिल किए गए
नई रोशनी के चित्र !

दीवालों पर लगे
विगत कई वर्षों के
लड़खड़ाते कैलेण्डर
और
वहीं टँगी
राम-कृष्ण-ईसा-बुद्ध की
ये सारी हिलती तस्वीरें......!
और
चोट खायी कबूतरी की तरह --
पंख फड़फड़ाती -
मेरे कमरे की वह खिडकी ..
और
मेरी बरौनियों तक झुका
यह पूरा का पूरा आसमान.... !
(१९६१)
</poem>
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