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|पीछे=चँहकि चकोर उठे, सोर करि भौंर उठे / शृंगार-लतिका / द्विज
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|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 2
}}
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'''मनहरन घनाक्षरी'''

हौंन लागे सोर चहुँ ओर प्रति कुंजन मैं, त्यौंहीं पुंज-पुंजन पराग नभ छाइगौ ।
फूल-फल साजत कौं आयसु बिपिन माँहिं, सीतल-सुगंध मंद-पौंन पहुँचाइ गौ ॥
’द्विजदेव’ भूले-भूले फिरत मलिंदन की, सुषमा बिलोकि हिएं सुख सरसाइ गौ ।
आए हुते आगे तैं हरौलन के गोल इत, आवत हमारे उत ’ऋतुपति’ आइ गौ ॥१६॥
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