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विष-पुरुष / रणजीत

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आग
अन्तर में दबाए हूँ जिसे मैं
झपट कर कोई लपट उसकी तुम्हें छूलेछू लेकि वे चिन्गारियाँ चिंगारियाँ जो
युगों से सोई हुई हैं सर्द साँसों में तुम्हारी
आज फिर जग जाएँ
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