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बारिश / वी० एम० गिरिजा

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<Poem>
बारिश में निकलने को मन नहीं कर रहा है
पर वह निकलने तक ही बात है ...
बालों को सहेजती उँगलियाँ बनकर
होठों पर होठों की आर्द्रता-सी
शंखदार गले को घेरते दुग्ध सागर की तरह
स्तनों पर टूटे धागों-सी बिखरती मोतियों की तरह
उदर पर सुखोष्मल प्रवाह-सी
जाँघों पर,
पैरों में,
पैरों की उँगलियों में,
स्वयं भूली हुई
जल-नृत्य की तरह
आनंद ताण्डव की तरह
बारिश .....
</poem>
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