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Kavita Kosh से
वर्तनी सुधार
पुस्तक लगे हथौड़ों-सी
उलझन के तख़्तों पर जैसे
पढ़े पहाडे़ पहाड़े - कील ठुँकें,
दरवाजे बड़-बड़ करते हैं
सीढ़ी धड़-धड़ बजती है
धरती अंबर घूमेगी
दुविधाओं के हाथों में बल नहीं बचा
सुविधाएँ मनुहार-मनौवल मनौवत भिजवाएँ।
रोटी कब तक पेट बाँचती?
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