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पुकार / सत्यानन्द निरुपम

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कागा कई बार आज सुबह से मुंडेर पर बोल गयाऔर जब मैंनेतेरे नाम की पुकार लगानी चाहीहोंठों के पट खुल न सकेकंठ की घंटियाँ बजें कैसे!सूरज माथे से आखों में में उतर रहामगरबस...दीये जलते हैंकई बार यूँ लगा कि साइकिल की घंटी आँखों मेंऔर हिय में तेरे होने काअहसास रहता है. अमलतास के फूल खिल चुकेहवा धूप में रंग उड़ाए फिरती है तेरी देह-गंध मेरी देह से मिटती ही बजी होनहींदौड़कर देहरी मन बौराया रहता है मैना फिर आज तक पहुंचा तोदिखी ही नहींशिरीष का पेड़ वह आख़री शाम थीतुम्हारे जाने की आसमान में जब भी अकेला टूटता हैकोई ताराओसारे पर किसी मैं तुम्हारे आने की आमद तो नहीं दिखतीखुशी मांगता हूँसड़क का सूनापन आँखों जब भी खिडकी में उतर आता हैकहीं गहरे से सांस उदासी का पखेरूमैं तेरे होंठों की खबर पूछता हूँ  और बरबसएक भारी निकलती नाज़ुक सी मुसकुराहटमेरे होंठों परछुम-छ-न-न नाच जाती हैलगता मुझे मालूम है अपना ही बोझ खुद ढोया नहीं जायेगाहवा में हाथ उठता तुमने देखा हैकोई सपनाकिसी का कंधा नहीं मिलतामैं उसे विस्तार देता हूँअंगुलियां चौखट पर कसती चली जाती हम बैठे हैंउम्मीदें भरभराकर जमीन किसी ऊँचे टीले के आख़री छोर पर बैठ जाती हैंबेचैनी की तपिश माथे में सिमट आती और नीचे नाचता हैमोरखूबहवा पकड़ रही है जोरबादल घिर आए हैं पड़ने लगी हैं बौछारेंरिम-खूब पानी का छींटा भी दिलासा झिमहम अपनी हथेलियाँपसार चुके हैं मोर अपने पंख समेट चुकादूर कहीं बिजली कड़कीऔर तुम डरी नहीं देता!जाने दिल पिटने लगी तालियाँ... मैं तुम्हारे बंधे हुए केश खोल देना चाहता हूँ सखिआओ, उतरो, आहिस्ते तुम्हें थामने को जो चाहिएहाथ बढ़ाता हूँवह चाहिए ही क्योंहवा गुदगुदाकर फिसल जाती हैहर सवाल का हरदम जवाब नहीं होता...लेकिन ऐसा ओह! तुम कहीं और होतुम्हें पुकार भी तो नहीं होता किरास्ते अनुत्तरित दिशाओं को जाते होंपाता...
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