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मान यहाँ हर ध्वनि का होता
किसके बस न सुए हुए हैं श्रोता!
यदि मैं गहरे में लूँ गोता
मोती कहाँ न पाऊँ!
पर जो छवि बैठी इस मन में
नव-नव धुन रचती क्षण-क्षण में
क्यों न उसी का  उसीका  करूँ वरण मैं
जग से दृष्टि फिराऊँ
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