भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
९.
यह भास-कालिदास की व्यथा से बड़ी
तुलसी की जलन इसके सामने इसके फुलझड़ी
अजुन मैं कुरुक्षेत्र में बिना रथ का
गांडीव नहीं, हाथ में जिसके हथकड़ी
१०.
चोटी तक जभी पहुँचाता कष्ट झेलकर
लुढ़क वहीं की वहीं आती वह प्रात को
सोता मैं निरर्थ नित्य यही खेल यही खेलकर
१०.
तिनके-सा आँधी में तनकर ढह गया हूँ मैं
मैंने निज को ही तोड़-तोड़कर बनाया है
१२.
एक फूल लपटों से निकाल कर निकालकर लाया हूँ एक दीप आँधी में सँभाल कर सँभालकर लाया हूँ
दग्ध मरु-प्रांतर में एक सुनहला शाद्वल
नाव एक भँवर से उछालकर लाया हूँ
क्या कहूँ, कौन वास्तविकता है!
मैं न लिख रहा काव्य को अपने
काव्य मेरा मुझी को मुझे ही लिखता है
१८.
मेरा सहयात्री यह अति ही विचित्र है
१९.
दो शक्तियाँ विरोधी मेरे दोनों ओर
विपरीत दिशाओं में खींचती है हैं डोर
मैं बीच में टँगा हुआ त्रिशंकु-सदृश
छू रहा भू का, कभी नभ का छोर
२०.
बिद्ध शर से अपंख बाज हूँ मैं
अनसुना, अनकहा, अकाज हूँ मैं
त्यक्त, नि:शक्त, बीच सागर का
भग्न जलता हुआ जहाज हूँ मैं
२१.
हर दिशा-द्वार जुड़ा पाता हूँ
और असहाय कभी मरने दो
२६.
ओस की बूँद, बिखरता हुआ पारा, जीवन
मैं इसे छू भी न पाता हूँ, पकड़ लूँ कैसे!
फूल बोला --'वसंत-श्री हूँ मैं'
कोकिला ने कहा, --'बड़ी हूँ मैं'
धूल पतझड़ की उडी इठलातीउड़ी इठलाती-- 'देख सब ओर देख, सब ओर उड़ रही हूँ मैं'
३१.
जीवन का देख महाशोक, काँप जाता हूँ
बना-बनाके उन्हें आग में ढकेल दिया
जिन्हें गुलाब की पँखुरी से रगड़ लगती थी
उन्होंने शीश पे पर लकड़ों का बोझ झेल लिया
<poem>