भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
907 bytes added,
05:27, 30 जुलाई 2011
<poem>
गलियों में गुमसुम बच्चेमाँ उठती है - मुंह अंधेरे इस घर की तब -'सुबह' उठती है माँ जब कभी थकती है इस घर की शाम ढलती है पीस कर खुद को हाथ की चक्की में आटा बटोरती हँस- खुलकर हँसते हैंहँस कर - माँफूलों हमने देखा है जोर जोर से भर जाती खुशबूचलाती है मथानीरंग फूलों में खिलते हैंआँगन खुद को मथती है - माँ और माथे की झुर्रियों मेंउलझे हुए सवालों को सुलझा लेती हैजब जब शोर मचातीइन बच्चों माखन की किलकारीतरह चटख रंगों उतार लेती है - घर भर के लिए माँ - मरने के बाद भी कभी नहीं मरती है घर को जिसने बनाया एक मन्दिर पूजा कीथाली का घी कभी वह आरती के दिए की बाती बनकर जलती है घर के आँगन में हर सुबह हरसिंगार के फूलों -सी झरती है माँ कभी नहीं मरती है।
</poem>