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16:55, 8 अगस्त 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अशोक तिवारी
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<Poem>
'''गाँव'''
गाँव मेरा है, पूछूं तुमसे भाई एक ही बात
कैसे बन गया एक अजनबी ख़ुद ही रातों रात
काम मेरा पुश्तैनी था जो छूट गया तो छूट गया
बाज़ारों की होड़ में मिल गई कैसी ये सौगात
वैश्वीकरण के चलते तुमने गाँव बनाए शहर
धंधा छूटा, काम छूटा खाई मात पे मात
कहते हैं अब गाँव बन गई ये पूरी दुनिया
कहाँ गया पर गाँव मेरा वो, थामे था जो हाथ
सोंधी मिट्टी, गाँव की ख़ुशबू मेहनतकश वे लोग
कहाँ गए, क्या हुआ उन्हें क्यों बेक़ाबू हालात
भाईचारा धर्म था जिनका, मानवता था कर्म
अपना-तेरा ऐसा फैला सिमटे अपने आप
दाने को मुहताज हो गए खाने को बेहाल
पैसे के बल पर तुमने तो ख़ूब उड़ाए माल
पूँजी का ये खेल भई अब किसको समझ न आए
अनगिन इंसानों को तुमने दिए ज़ख्म, आघात I
</poem>