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सपने / अशोक तिवारी

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'''सपने'''

रेल की पटरियों के किनारे
दौड़ती हुई सड़कों के जालों पर बिछे
फ्लाईओवर्स के नीचे
डिवाइडर्स के पतले थडों पर
गहरी नींद में सोते हुए
आदमी की चलती सांसों को गिनिए
उसके सपनों में दाख़िल हुइए
और गोल रोटी के गोले को
गोल-गोल घूमता देखिए चारों तरफ़
सुनिए,
उसकी धौंकनी के सुरों को
जहां वे सब तराने तह दर तह रिकॉर्ड हैं
जो उनकी माँओं ने उनके लिए गाए थे
अपने लाड़ले की हर आहट के लिए
बिछाए थे पलक-पावड़े
धोती के नर्म कोने की गर्म फूँक से
सेंका था जिन्हें
अपने कल से बेख़बर
टंके होते थे जिनके चेहरों पर
भविष्य में पूरे होने वाले सपने
और उम्मीद

गाड़ा किया था ख़ून को जिसने
अपनी इन सांसों के लिए
थकान से चूर
भीड़ में ग़ुम
उन्हीं नौनिहालों की
बेतरतीब गर्म सांसें
धोंकनी की तरह चलती हैं
महानगर की सड़कों पर
सुबह से शाम तक......
सोते हुए भी .....
अपने सपनों में भी
खींच रही होती हैं जो भारी बोझ
अधभरे या ख़ाली पेट
पोंछते हुए टपकता पसीना
चढ़ा रही होती हैं जो
बार-बार
रिक्शे की घिसी हुई चैन

भीड़ और शोर के बीच
सोता हुआ वह आदमी
निपट अकेला होता है...
अपने सपने में भी
दुनिया से बेख़बर
वैसे ही जैसे
बेख़बर होती है ख़ुद दुनिया उससे
...................
01/05/2011
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