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उजाला / अशोक तिवारी

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'''उजाला'''

उजाला भरो अपने अंदर
कि अँधेरा दूर हो
अपनी नज़रों से
और हम देख पाएं
बहुत सी अनचीन्ही चीज़ों को
उन्हें भी,
जो दिखाई तो देती हैं
मगर होती नहीं वैसी

समाने दो उजाले को अपने रेशे-रेशे में
कि अँधेरे की काली घुप चादर
फैला न सके मन में ज़हरीले अहसास
और दीवारों की बाड़
पैदा न कर सके ख़ूबसूरत वादियों में
ख़ूनी लडाई का जूनून
ज़मीन के उन टुकड़ों के सवाल पर
जो आपने पैदा ही नहीं किए
काँटों भरे रास्तों पर
बचाया जा सके इंसानियत को हर सिम्त
कि भरो उजाला अपने अंदर
इस क़दर कि नज़र न आएं सिर्फ़ हम ही
देख पाएं दूसरों को
और पहचान पाएं अच्छे से

खोलो एक खिड़की अपने अंदर
उजाले के लिए
कि उजाला ही रहे उजाले के लिए
बना न दे रौशनी की भयंकर चकाचोंध
हमें कहीं अँधा
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17/04/2011
</poem>
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