{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी}}{{KKCatGhazal}}<poem>आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी|<br />यूँ उज़ालों की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी|१|<br /><br />सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का|<br />वो समझ बैठे, बग़ावत कर रहा है आदमी|२|<br /><br />छीन कर कुर्सी, अदालत में घसीटा है फ़क़त|<br />चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी|३|<br /><br />आँखें मूंदे टेक्स भरता जा रहा है बेहिसाब|<br />अनपढ़ों के जैसी हरक़त कर रहा है आदमी|४|<br /><br />जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिजाज़|<br />सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी |५|<br /><br />सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत|<br />कैसे हम कह दें, हुक़ूमत कर रहा है आदमी|६|<br /><br />मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं|<br />आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी|७|<br /poem>