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<Poem>
पूछने कि हम्मत भी नहीं होती
अब कहाँ हो
कैसी हो

क्या सुनी जा सकती है फोन पर
तुम्हारी आवाज़
क्या पूछने पर किसी से पता चल सकता है
तुम्हारा ठौर-ठिकाना

मै भेजता पुराने दिनों कि तरह
कबूतर के पंजे से बंधी
एक चिट्ठी
कहने की हिम्मत नही होती
दया करो
खत
खटटर खटटर चल रहे
पंखे-से हमारे दिनों पर. </poem>
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