{{KKGlobalKKGlobal। मेघगीत }}
{{KKRachna
|रचनाकार=जानकीवल्लभ शास्त्री
उपर उपर पी जातें हैं, जो पीने वाले हैं,
कहते - ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं!
इस न्रूशंस नृशंस छीना-झपटी पर, फट कपटी पर,
उन्मद बादल,
मुसलधार शतधार नहिं नहीं बरसाता है!
तो सागर पर उमड़-घुमड़ कर, गरज-तरज कर, -
ब्यर्थ गड़गड़ाने, गाने क्या आता है?
मानी बादल,
तू भी उपर ही से सैन चलाता है!
तेरी बिजली राह दिखाती नहिं नहीं नई रे,
यह परम्परा तो तू भी न ढहाता है!
(४)
गिरि-शिखरों की उठा बाहुयें, स्पर न अधर तक आता,
आ रे आ, तुझकॊ बुला रही तेरी धरती माता!
समय बीतता जाता है, बीता न बहुर कर आता,
आ रे आ, मरघट को नव फूलों का देश बनाता!
क्षेत्र-क्षेत्र को प्लावित करना, है घट-घट को भरना,
आ रे आ, प्रिय, अभी तो तुझे सात समुन्दर तरना!
कोने-कोने, श्याम-सलोने, तू लुक-छुप कर,
गीले बादल,
भूतल को कब वृन्दा-विपिन बनाता है?
बूंद-बूंद देकर सूखे को हरित, मन्जरित
और गुन्जरित करने अब कब आता है?
*******
</poem>