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05:12, 11 अगस्त 2007 तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर । <BR/>
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥ <BR/><BR/>
आस पराई राख्त, खाया घर का खेत । <BR/>
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥ <BR/><BR/>
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार । <BR/>
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥ <BR/><BR/>
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय । <BR/>
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥ <BR/><BR/>
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव । <BR/>
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥ <BR/><BR/>
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय । <BR/>
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥ <BR/><BR/>
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय । <BR/>
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥ <BR/><BR/>
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । <BR/>
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । <BR/>
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥ <BR/><BR/>
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय । <BR/>
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥ <BR/><BR/>
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार । <BR/>
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥ <BR/><BR/>
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल । <BR/>
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥ <BR/><BR/>
जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख । <BR/>
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥ <BR/><BR/>
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर । <BR/>
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 114 ॥ <BR/><BR/>
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो । <BR/>
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥ <BR/><BR/>
जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार । <BR/>
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥ 116 ॥ <BR/><BR/>
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । <BR/>
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥ <BR/><BR/>
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार । <BR/>
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । <BR/>
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥ <BR/><BR/>
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय । <BR/>
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥ <BR/><BR/>
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार । <BR/>
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥ <BR/><BR/>
जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस । <BR/>
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥ <BR/><BR/>
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय । <BR/>
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥ <BR/><BR/>
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान । <BR/>
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥ <BR/><BR/>
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह । <BR/>
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥ 125 ॥ <BR/><BR/>
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत । <BR/>
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥ <BR/><BR/>
सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह । <BR/>
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥ <BR/><BR/>
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग । <BR/>
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥ <BR/><BR/>
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव । <BR/>
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥ <BR/><BR/>
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय । <BR/>
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥ <BR/><BR/>
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह । <BR/>
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥ <BR/><BR/>
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं । <BR/>
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । <BR/>
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥ <BR/><BR/>
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय । <BR/>
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥ <BR/><BR/>
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । <BR/>
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥ <BR/><BR/>
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप । <BR/>
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥ <BR/><BR/>
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत । <BR/>
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥ <BR/><BR/>
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय । <BR/>
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥ <BR/><BR/>
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट । <BR/>
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥ <BR/><BR/>
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान । <BR/>
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥ <BR/><BR/>
आस पराई राखता, खाया घर का खेत । <BR/>
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥ <BR/><BR/>
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक । <BR/>
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥ <BR/><BR/>
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद । <BR/>
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥ <BR/><BR/>
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । <BR/>
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥ <BR/><BR/>
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान । <BR/>
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥ <BR/><BR/>
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । <BR/>
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥ <BR/><BR/>
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय । <BR/>
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥ <BR/><BR/>
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय । <BR/>
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥ <BR/><BR/>
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार । <BR/>
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए । <BR/>
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय । <BR/>
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥ <BR/><BR/>
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय । <BR/>
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय । <BR/>
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय । <BR/>
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय । <BR/>
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय । <BR/>
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥ <BR/><BR/>
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय । <BR/>
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । <BR/>
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥ <BR/><BR/>
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं । <BR/>
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥ <BR/><BR/>
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ । <BR/>
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥ <BR/><BR/>
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय । <BR/>
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥ <BR/><BR/>
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय । <BR/>
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥ <BR/><BR/>
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार । <BR/>
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥ <BR/><BR/>
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय । <BR/>
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय । <BR/>
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर । <BR/>
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥ <BR/><BR/>
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह । <BR/>
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥ <BR/><BR/>
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय । <BR/>
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥ <BR/><BR/>
कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं । <BR/>
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार । <BR/>
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥ <BR/><BR/>
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय । <BR/>
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर । <BR/>
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि । <BR/>
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥ <BR/><BR/>
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ । <BR/>
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । <BR/>
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥ <BR/><BR/>
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव । <BR/>
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । <BR/>
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥ <BR/><BR/>
कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । <BR/>
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥ <BR/><BR/>
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । <BR/>
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । <BR/>
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । <BR/>
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥ <BR/><BR/>
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । <BR/>
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥ <BR/><BR/>
खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह । <BR/>
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥ <BR/><BR/>
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार । <BR/>
वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥ <BR/><BR/>
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल । <BR/>
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥ <BR/><BR/>
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच । <BR/>
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥ <BR/><BR/>
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय । <BR/>
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥ <BR/><BR/>
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी । <BR/>
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥ <BR/><BR/>
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव । <BR/>
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥ <BR/><BR/>
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल । <BR/>
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥ <BR/><BR/>
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान । <BR/>
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥ <BR/><BR/>
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं । <BR/>
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥ <BR/><BR/>
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप । <BR/>
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥ <BR/><BR/>
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग । <BR/>
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥ <BR/><BR/>
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । <BR/>
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥ <BR/><BR/>
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार । <BR/>
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥ <BR/><BR/>
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय । <BR/>
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥ <BR/><BR/>
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद । <BR/>
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥ <BR/><BR/>
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस । <BR/>
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥ <BR/><BR/>
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार । <BR/>
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥ <BR/><BR/>