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कबीर दोहावली / पृष्ठ ४

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New page: सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । <BR/> तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन...
सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । <BR/>
तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ <BR/><BR/>

हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । <BR/>
मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ <BR/><BR/>

कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । <BR/>
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ <BR/><BR/>

कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । <BR/>
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ <BR/><BR/>

त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । <BR/>
जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ <BR/><BR/>

कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । <BR/>
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ <BR/><BR/>

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । <BR/>
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ <BR/><BR/>
कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । <BR/>
सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ <BR/><BR/>

कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास । <BR/>
पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥ <BR/><BR/>

बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक । <BR/>
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥ <BR/><BR/>

कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह । <BR/>
जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥ <BR/><BR/>

माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ । <BR/>
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥ <BR/><BR/>

करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड । <BR/>
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥ <BR/><BR/>

कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ । <BR/>
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥ <BR/><BR/>

मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग । <BR/>
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥ <BR/><BR/>

पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद । <BR/>
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥ <BR/><BR/>

जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल । <BR/>
पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥ <BR/><BR/>

काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ । <BR/>
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥ <BR/><BR/>

प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच । <BR/>
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥ <BR/><BR/>

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । <BR/>
जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥ <BR/><BR/>

खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून । <BR/>
देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥ <BR/><BR/>

साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ । <BR/>
जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥ <BR/><BR/>

तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय । <BR/>
कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥ <BR/><BR/>

जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास । <BR/>
सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥ <BR/><BR/>

जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम । <BR/>
राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥ <BR/><BR/>

कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ । <BR/>
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥ <BR/><BR/>

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि । <BR/>
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥ <BR/><BR/>

मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम । <BR/>
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥ <BR/><BR/>

मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ । <BR/>
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥ <BR/><BR/>
कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ । <BR/>
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥ <BR/><BR/>

उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान । <BR/>
धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥ <BR/><BR/>

जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग । <BR/>
पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥ <BR/><BR/>

जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु । <BR/>
ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥ <BR/><BR/>

कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै । <BR/>
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम । <BR/>
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥ <BR/><BR/>

कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । <BR/>
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ <BR/><BR/>

कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई । <BR/>
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥ <BR/><BR/>

माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । <BR/>
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥

मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । <BR/>
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ <BR/><BR/>

हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत । <BR/>
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ <BR/><BR/>
काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । <BR/>
बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥ <BR/><BR/>

पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण । <BR/>
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ <BR/><BR/>

आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति । <BR/>
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥ <BR/><BR/>

कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ । <BR/>
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥ <BR/><BR/>

कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग । <BR/>
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥ <BR/><BR/>

मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि । <BR/>
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥ <BR/><BR/>

मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ । <BR/>
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥ <BR/><BR/>

एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ । <BR/>
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥ <BR/><BR/>

कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ । <BR/>
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥ <BR/><BR/>

जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि । <BR/>
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥ <BR/><BR/>

कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ । <BR/>
इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥ <BR/><BR/>
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत । <BR/>
आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥ <BR/><BR/>

कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस । <BR/>
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥ <BR/><BR/>

नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ । <BR/>
गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 363 ॥ <BR/><BR/>

उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं । <BR/>
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥ <BR/><BR/>

कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट । <BR/>
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥ <BR/><BR/>

मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि । <BR/>
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥ <BR/><BR/>

कबीर माला मन की, और संसारी भेष । <BR/>
माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥ <BR/><BR/>

माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ । <BR/>
मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥ <BR/><BR/>

कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार । <BR/>
मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥ <BR/><BR/>

माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ । <BR/>
माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥ <BR/><BR/>

बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक । <BR/>
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥ <BR/><BR/>
स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि । <BR/>
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥ <BR/><BR/>

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात । <BR/>
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥ <BR/><BR/>

एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार । <BR/>
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥ <BR/><BR/>

कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर । <BR/>
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥ <BR/><BR/>

सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत । <BR/>
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥ <BR/><BR/>

गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह । <BR/>
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥ <BR/><BR/>

निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह । <BR/>
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥ <BR/><BR/>

जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ । <BR/>
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥ <BR/><BR/>

काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि । <BR/>
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥ <BR/><BR/>

राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई । <BR/>
तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥ <BR/><BR/>

पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ । <BR/>
चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥ <BR/><BR/>

फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई । <BR/>
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥ <BR/><BR/>

हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि । <BR/>
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥ <BR/><BR/>

जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं । <BR/>
ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥ <BR/><BR/>

कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास । <BR/>
जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥ <BR/><BR/>

क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान । <BR/>
वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥ <BR/><BR/>

काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम । <BR/>
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥ <BR/><BR/>

दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि । <BR/>
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥ <BR/><BR/>

कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि । <BR/>
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥ <BR/><BR/>

कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ । <BR/>
अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥ <BR/><BR/>

भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग । <BR/>
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥ <BR/><BR/>

रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ । <BR/>
दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥ <BR/><BR/>

कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ । <BR/>
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥ <BR/><BR/>

मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई । <BR/>
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥ <BR/><BR/>

मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह । <BR/>
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥ <BR/><BR/>

संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ । <BR/>
साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥ <BR/><BR/>

कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत । <BR/>
काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥ <BR/><BR/>

कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ । <BR/>
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥ <BR/><BR/>

जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द । <BR/>
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ <BR/><BR/>
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